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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 54 
महाराज नहुष अपने समस्त पदाधिकारियों , अमात्य, सेनापति आदि से राज्य के हालातों के बारे में सूचना लेने और उन्हें आवश्यक दिशा निर्देश प्रदान करने के पश्चात अपने राजप्रासाद के अंत:पुर में पधारे । अंत:पुर की रक्षा के लिए किन्नरों को नियोजित किया गया था जिससे अंत:पुर की स्त्रियों का चरित्र भंग होने की संभावना ही न रहे । अंत:पुर में या तो सेविकाऐं थीं या किन्नर थे । महाराज और राजकुमारों के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को अंत:पुर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी । महाराज के साथ प्रतिहारी महारानी के कक्ष तक गई । कक्ष के बाहर ही वह रुक गई और कुछ दूर जाकर सुरक्षा में चौकन्नी होकर खड़ी रही । कक्ष के बाहर अनेक सेविकाऐं थीं जो आवश्यकता पड़ने पर महाराज और महारानी की सेवा के लिए अंदर जा सकते थे  । 
महारानी अशोक सुंदरी ने महाराज का स्वागत ताम्बूल से किया । महाराज को महारानी के हाथ का बना हुआ ताम्बूल बहुत पसंद था । महारानी बनाती भी बहुत अच्छी तरह से थीं । महाराज का हाथ पकड़कर महारानी उन्हें सेज पर ले आईं और उन्हें सेज पर बैठाकर उनके पैर दबाने लगीं । महाराज ने महारानी को पैर दबाने से रोकते हुए उन्हें अपने अंक में भर लिया और चुंबनों की ऐसी झड़ी लगा दी जैसे सावन के महीने में बरसात की झड़ी लग जाती है । महारानी जी भी मरुस्थल की तरह प्यासी थीं इसलिए उन्होंने भी मेघों को जमकर बरसने दिया । मेघ भी बहुत दिनों से बरसने को बेताब थे इसलिए वे भी जमकर बरसे और मरुस्थल की समस्त प्यास बुझाकर ही माने । 

महारानी ने अपनी स्वर्ण जड़ित पेटी से एक और ताम्बूल निकाल कर उसे महाराज को देते हुए पूछा 
"कितने दिन हो गये हैं हमें पृथक हुए  ! क्या आपको कभी देवलोक में मेरी याद आई" ? महारानी ने अपना हाथ महाराज के हृदय पर रख दिया और वे महाराज के हृदय पर हाथ फिराने लगीं जैसे वे महाराज का हृदय टटोल कर देख रही हों कि वहां कोई और तो नहीं बैठी है ! 

महाराज महारानी के मनोभाव जान गये और मुस्कुराकर बोले "आप तो हमारे हृदय में रहती हैं प्रिये ! फिर आपकी याद कैसे आती ! जब भी आपसे बात करने का मन करता , मैं अपना हाथ अपने हृदय पर रखकर उसे हौले हौले फिरा लेता तो पता नहीं क्यों मुझे वहां पर आपका स्पर्श महसूस होता था । बस, मैं ऐसे ही अपने हृदय पर हाथ रखकर सो जाता था । मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे मैं आपकी बांहों में सो रहा हूं" । महाराज ने महारानी के अधरों को अपने पान के रस से रंगते हुए कहा । 

महाराज के प्रेम की गहनता को जानकर महारानी अभिभूत हो गईं । वे महाराज की आंखों में आंखें डालकर बोलीं 
"हमने तो सुना है कि देवलोक में एक से बढ़कर एक सुन्दर सुन्दर अप्सराऐं रहती हैं और वे सब अविवाहित हैं । उन्हें स्वतंत्रता है कि वे जिसके साथ चाहें , रात्रि व्यतीत कर सकती हैं । क्या आपके साथ किसी अप्सरा ने कोई रात्रि व्यतीत की थी" ? महारानी की आंखों में भय का समुद्र लहलहा रहा था । उन्हें पक्का विश्वास था कि महाराज के साथ वहां पर कोई न कोई अप्सरा जरूर सोई होगी । वह महाराज के मुंह से ही यह बात सुनना चाहती थी । 

महारानी अशोक सुन्दरी की बात सुनकर महाराज पहले तो मुस्कुराये फिर प्रति प्रश्न करते हुए बोले "आपको क्या लगता है ? मेरे साथ कितनी अप्सराऐं सोई होंगीं, आप कल्पना करके बताइये" ? 

महारानी अपने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न सुनकर शर्मा गईं । फिर बोलीं "मुझे क्या पता ? मैं आपके साथ देवलोक थोड़ी न गई थी । अगर जाती तो फिर मैं आपके पास किसी को फटकने तक नहीं देतीं" । फिर वे महाराज की चिरौरी करती हुई बोलीं "टालिए मत आर्य , सीधे सीधे बताइये न कि कितनी अप्सराओं ने आपके साथ रात्रि व्यतीत की है देवलोक में" । महारानी महाराज की खुशामद करते हुए बोली । 

महाराज ने कुछ सोचने की मुद्रा बनाई और बोले 
"मुझे सोचने और गिनने का वक्त तो दो प्रिये ! अभी गिनकर बताता हूं" । महाराज उंगलियों पर कुछ गिनने लगे थे और कुछ बुदबुदाते भी जा रहे थे । महाराज को इस तरह उंगलियों पर कुछ गिनते देखकर महारानी को बहुत धक्का लगा । वे तो सोच रही थीं कि महाराज कहेंगे कि मैंने किसी को अपने पास फटकने ही नहीं दिया था, सोने की तो बात सोचो ही मत । पर हाय रे दैव ! महाराज की गिनती तो समाप्त ही नहीं हो रही है ! सोचकर महारानी की आंखों में पानी आ गया । महारानी के लाख रोकने पर भी वह पानी आंखों की सीमा लांघकर बाहर आ गया । दो गर्म गर्म बूंद महाराज के मस्तक पर गिरी तो महाराज ने महारानी की ओर देखा । उनकी आंखें सावन भादों की तरह बरसने लगी थी । महाराज तुरंत उठकर बैठ गये , उन्होंने महारानी को अपनी बांहों में कस लिया और उन्हें अपने सीने से लगा लिया । महारानी महाराज का प्रेम पाकर या उनके व्यभिचार की बात सोच सोचकर जोर जोर से रोने लगीं । उनकी हिलकी बंध गई थी । 

महाराज ने उनका मुंह अपने दोनों हाथों में ले लिया और वे महारानी के आंसू पोंछने लगे । महारानी बहुत देर तक रोती रहीं और महाराज उनके आंसू पोंछते रहे , उन्हें ढाढस बंधाते रहे । उनका हाथ अपने हाथों में लेकर महाराज कहने लगे 
"मुझे क्षमा करना प्रिये, मैंने तो गिनने का अभिनय किया था बस , मैंने ऐसी कोई बात कभी नहीं की जो तुम्हारे हृदय को ठेस पहुंचाती । मैंने कोई व्यभिचार नहीं किया है और न कभी करूंगा । यह बात गांठ बांधकर रख लेना । हां, देवराज इन्द्र ने मेरे पास अनेक अप्सराऐं भेजीं अवश्य किन्तु मैंने उन्हें बिना देखे ही वापिस लौटा दिया । 

एक दिन मेरे कक्ष में एक अप्सरा रम्भा आई और मेरे साथ रात्रि व्यतीत करने का निवेदन करने लगी । मैंने उसे स्पष्ट इंकार कर दिया फिर भी वह अपने वस्त्र हटाने लगी थी । तब मैं भागकर अपने कक्ष से बाहर आ गया । तत्पश्चात वह मेरे कक्ष से निकली थी । इस तरह मैंने तो केवल आपके साथ ही स्वप्न में रात्रि व्यतीत की थी वहां पर , अन्य किसी के साथ नहीं । अब तो प्रसन्न हो ना ? और हां, अब तो मुस्कुरा दो जरा सा ! आपका मुरझाया हुआ चेहरा मैं देख नहीं सकता हूं " । महाराज मुसकुरा रहे थे और महारानी की आंखों में झांककर उन्हें छेड़ भी रहे थे । 

महाराज की बातें सुनकर महारानी झटपट उठ बैठीं और महाराज के सीने से चिपक कर बोलीं "आप जो भी कुछ कह रहे हैं क्या वह पूर्णतया सत्य है ? आप मेरे सिर पर हाथ रखकर मेरी कसम खाइये" । महारानी को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था । 
"क्या मुझ पर विश्वास नहीं है" ? महाराज अभी भी मुस्कुरा रहे थे । 
महारानी जी बच्चों की तरह तुनक कर कहने लगीं "खाइये न मेरी कसम ! देखो, मेरी झूठी कसम मत खाना नहीं तो मैं मर जाऊंगी और मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे" । अशोक सुन्दरी महाराज की ओर देखते हुए बोली । 

अब महाराज ने महारानी के सिर पर हाथ रखा और बोले "तुम्हारी कसम अशोक , मैंने देवलोक में किसी भी स्त्री के साथ कोई रात्रि व्यतीत नहीं की" । 

महाराज के इन शब्दों ने जैसे जादू का काम किया । महारानी अशोक सुन्दरी ने महाराज नहुष का हाथ अपने हाथ में लेकर उस पर चुंबनों की बौछार कर दी । फिर वे महाराज से बुरी तरह लिपट गईं और धीरे धीरे सुबकने लगीं । महाराज को उनके सुबकने की आवाज सुनाई दी तो उन्होंने कहा "अब ये आंसू किसलिए अशोक ? अब तो तुम्हें खिलखिलाना चाहिए" । 
"आप सच कहते हैं, आर्य । लेकिन ये आंसू तो पश्चाताप के हैं । मुझे स्वयं पर ही लज्जा आ रही है कि मैंने आप पर अविश्वास क्यों किया ? इस पाप के लिए मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगी" । 

महाराज ने महारानी के अधर अपने अधरों में भींच लिये तब जाकर उनका सुबकना बंद हुआ । तत्पश्चात दोनों जने  आलिंगनबद्ध होकर सो गये । 

श्री हरि 
20.7.23 

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